बुधवार, 1 अगस्त 2012

पचास रूपए का पास बनाम यह माटी सभी की कहानी कहेगी

पिछले रविवार दिन में एक ज़रूरी काम से रोहिणी जाकर वापस आना था और डीटीसी का 50 रूपए का पास सुबह ही बनवा लिया था.  सच बताऊँ तो दोपहर तक पचास से ज्यादा रूपए का सफ़र तय कर भी लिया था और घर पर वापिस पहुँच भी गया था.  पर उस पास को यूज़ करने, यूज़ क्या वही पुरानी मिडल क्लास मेंटेलिटी, बुरी तरह से उसका दोहन करने के चक्कर में मेट्रो नहीं ली जबकि जल्दी घर वापसी के बाद  बच्चो को भी समय देना था. पर बनवा जो रखा था पास पचास रूपए का.

कॉलेज के दिन भी याद आए जब आल रूट पास में पूरी दिल्ली नाप लेते थे. अच्छा भी लगा की दिल्ली के उस हिस्से में कम जाना या लगभग न ही जाना होता है. अब तो खैर मेट्रो की वजह से दक्षिण दिल्ली वालों को रोहिणी और द्वारका दूर नहीं लगते पर एक ज़माने में तो यह जगहें परदेस लगती थीं. ज्यादा पुरानी बात नहीं है बस सन  दो हज़ार एक या दो की बात है,  एक बार जब दिल्ली विकास प्राधिकरण ने द्वारका में अपने उद्यानों का प्रबंधन दिखाने के लिए पत्रकारों का एक दौरा आयोजित किया था.  डिप्लोमा कोर्स करने के बाद भी किसी अख़बार में जगह नहीं मिल पा रही थी तो 'नेशनल हेराल्ड' में बतौर ट्रेनी प्रश्रय मिला था.  अब तो नेशनल हेराल्ड भी बंद हो गया है.  उन दिनों मुझे उस दौरे की कवरेज के लिए भेजा गया था. तो द्वारका पहुंचकर विभिन्न उद्यानों को देखते हुए रास्ते में डी टी सी की एक बस देखते ही कुछ पत्रकार भाइयों ने हैरानी मिश्रित चुटकी लेते हुए कहा था कि 'अरे! वो देखो! डी टी सी की बस!'   

खैर, शाम को नियान रौशनी में चमकती दिल्ली के उस हिस्से की रौनक ही निराली थी।

बसें बदल-बदल कर गया और बसें ही बदल-बदल कर आया। बीच में एक जगह ग्रामीण सेवा की टेम्पुलिया में पांच रूपए देने पड़े, बहुत खटका। जब जेब में पचास रूपए का पास हो तो ट्रेवल पर पैसे खर्चने वाला बेवक़ूफ़ ही कहलाएगा न मिडल किल्लास के हिसाब से।

एक और बस बदलते हुए रास्ते में अवंतिका नामक उपनगर में थक-हार के एक जगह जलजीरा भी पिया। उस आदमी के पास उस जल को पीने के वास्ते सिर्फ महिलाएं ही खड़ी थीं। मैंने डरते-डरते उस भाई से पूछ लिया कि वो मुझे भी जलजीरा पिलाएगा या मैं जीरे-सा मुंह ले के कहीं और जल मरूं. पर उसने मुस्कुरा कर 10 रुपल्ली झडवा लिए और पिला दिया मुझे तैरती बूंदी वाला (या शायद मुनक्के वाला) जलजीरा.

इन चिर-प्यासे नयनों के सामने
सदैव सद्यस्नात-सी फ्रेश
षोडशी रहने का बिना एक्सपायरी डेट वाला लाइसेंस धारिणी
डिज़ाईनर चप्पलें पहने आधा दर्जन चपल बालाएं
उम्रें जिनकी रहीं होंगी - कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक वाली

उस पर जलजीरा
उसमें बूंदी
धनिया
और मैं...
अजी थकान गई भाड़ में!

कुल मिला के अच्छा लगा।

कमाल है रास्ते में इतने माल और दुकाने आईं पर कोई भी खाली नहीं थी। मुझे तो एकबारगी ऐसा लगा कि लोग पैनिक में हैं जल्दी जल्दी खरीद लो भईया पता नहीं कल मिले न मिले। पत्नियों के ज़रखरीद गुलाम पति तो बस खरीद करने का ज़रिया यानी द्रव्य उपलब्ध कराने भर को यूजफुल लग रहे थे। बोयफ्रेंड़ो की हालत भी कुछ बेहतर नहीं रही होगी. बेचारे... चलती-फिरती ए टी एम मशीन...बस। मुझे लगा अच्छा हुआ मैं न हुआ, बस हुआ-हुआ करता हुआ करने लगा हूँ ढेंचू-ढेंचू. और अब चर्र-मर्र, जाऊंगा यूं ही मर.

हर रेस्तरां में खाने वाले लोग (हे भगवान मेरी नज़र ने उन्हें भी नहीं बख्शा!!) तो ऐसे लग रहे थे मानो सदियों से भूख से पीड़ित लोगों में ज्यादा खाना तेज़ खाने की रेस लगी हो।

खा खा खा
खामखा खा
खाने के लिए आ 
जा खा कर जा
खोल बैंक में खाता
खुल के खा
खाता जा
आता-जाता खा
बिल चुका
आ कल फिर आ
घर पर कुछ मत बना
कमा
कायम रहने के लिए चूरन खा
पेट खाली करके आ
और फिर खा
जब भी वो मिला
पिला
था खाने पे पड़ा पिला
जो भी मिला
गया खा
खिलखिला
खिला
खा खा खा
खाक में मिलने से पहले खा

रेस्तरां से निकाले गए नाकाम चूहे फ्लाई ओवरों पर चढ़ती-उतरती बस में हिचकोले खाने के कारण अपनी जगह से सरके मेरे आधे ग्लोबल पेट में शेयर बाज़ार में मंदी के कारण किसी मल्टीनेशनल के हाय-दैया करते हुए सी ई ओ की तरह बेचैनी में कुलबुला रहे थे. मैं घर जाकर दाल रोटी (क्या करूं मेरी फेवरेट डिश हई येई) खाने के लिए मरा जा रहा था।

बस जब रिंग रोड से होती हुई धौला कुआँ में दाखिल हुई तो लगा जैसे घर आ गया.  हालाँकि घर वहां से भी 15-20 किलोमीटर दूर होगा पर अब सड़कें और इमारतें जानी-पहचानी लगने लगीं.  यह भी सोचा जो लोग रोजाना अप-डाउन करते हैं वो क्या सोचते होंगे इस बारे में.  और जो लोग दिल्ली के उस हिस्से में रहते हैं वो जब कभी कभी इस तरफ आते होंगे तो कैसा लगता होगा उन्हें. शायद उनका इस तरफ आना ज्यादा होता होगा बनिस्पत दिल्ली के इस तरफ वाले लोगों के वहां जाना.


कमाल है उस तरफ और इस तरफ की दिल्ली का कंट्रास्ट और कैरेक्टर शहर की पूरी आब-ओ-हवा और चाल-ढाल मुझे बिलकुल अलग लगीं. यानि जगहों का रूप-रंगतेवर और मिज़ाज हर कुछ किलोमीटर के बाद बदल जाता है?

कुल मिलाके अच्छा लगा।

विजय सिंह